Sunday 9 August 2015

भारतीय वाद्य :- सितार

संगीत शास्त्र श्रृंखला                           〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
भारतीय वाद्य                        

सितार :-

सितार भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है, जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत के साथ हर तरह के संगीत में किया जाता है। हम कह सकते हैं कि सितार भारतीय तन्त्री वाद्यों का सर्वाधिक विकसित रूप है।                                                                                सितार पारंपरिक वाद्य होने के साथ ही ऐसा वाद्य यंत्र है, जिसने संपूर्ण विश्व में भारत और भारतीय संगीत को लोकप्रिय बनाया। भारत के राष्ट्रीय वाद्य यंत्र होने का गौरव प्राप्त सितार बहुआयामी साज होने के साथ ही एक ऐसा वाद्य है, जिसके माध्यम से भावनाओं को प्रकट किया जा सकता है।

इतिहास व विकास :-

सितार के जन्म और इतिहास के विषय में विद्वानों के अनेक मत हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार इसका निर्माण वीणा के एक प्रकार के आधार पर हुआ है। जबकि दूसरे मतानुसार 14वीं शताब्दी में अलाउद्दीन ख़िलजी के दरबारी हजरत अमीर ख़ुसरो ने मध्यमादि वीणा पर 3 तार चढ़ाकर सितार का अविष्कार किया। उस समय उसका नाम सेहतार रखा गया। फ़ारसी में 'सेह' का अर्थ 3 होता है। सेहतार कालान्तर में सितार हो गया और 3 तार के स्थान पर 7 तार अथवा 8 तार लगाये जाने लगे। तीसरे मतानुसार सितार पूर्णतया अभारतीय वाद्य है और यह परशिया से भारत में आया। एक तारा, दो तारा, सहतारा, चहरतारा, पचतारा क्रमश: 1, 2, 3, 4 अथवा 5 तार वाले वाद्य आज भी परशिया के लोक-संगीत में व्यवह्रत हैं।                                                                  

भारतीय संगीत शास्त्रवेत्ता एवं प्रसिद्ध विचित्र वीणा वादक डॉ. लालमणि मिश्र ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संगीत वाद्य ' में सितार को प्राचीन त्रितंत्री वीणा का विकसित रूप सिद्ध किया है। डॉ. मिश्र के मतानुसार सितार पूर्ण भारतीय वाद्य है, क्योंकि इसमें भारतीय वाद्योँ की तीनों विशेषताएं समाहित हैं। सितार में तंत्री या तारों के अलावा घुड़च, तरब के तार तथा सारिकाएँ होती हैं।                              

18वीं और 19वीं शताब्दी में सितार अधिक विकसित हुआ। पहले की सितार या तो आकार में बहुत बड़ी होती थी या छोटी। वर्तमान मध्यम आकार की  सितार तब नहीं होती थी ,समय के साथ साथ सितार का विकास हुआ,उसका स्वरूप बदला साथ ही साथ उस पर बजायी जाने वाली वादन सामग्री परिवर्धित हुई । उदाहरण के लिए पहले बड़ी सितारों पर सिर्फ़ आलाप, जोड़, मीड़ का काम ही होता था और छोटी सितारों पर द्रुतलयकारी। उस समय ऐसी कोई भी सितार नहीं थी जिस पर आलाप से लेकर तानो और झाला तक यानि धीमी लय से लेकर द्रुत लय तक का काम एक साथ किया जा सके।                                                    

शाह सदारंग ने सितार पर बजायी जा सकने वाली पहली योग्य गत बनाई। उस्ताद मसीत खान साहब की बनाई मसीतखानी गतेँ और उस्ताद रजा खां साहब की बनाई रजाखानी गतेँ बड़ी लोकप्रिय हुई । मसीतखानी गत यानी विलंबित लय में बजने वाली गत और रजाखानी द्रुत लय में बजने वाली गत होती हैं। जिस प्रकार गायन में बंदिश या ख्याल के सहारे राग या गायन का विस्तार होता है, उसी प्रकार वादन में गतोँ की सहायता से राग और वादन का विस्तार किया जाता है।उस्ताद इमदाद हुसैन खां ने सितार में वादन के बारह अंगो का समावेश किया।

सितार के घराने :-
                                                     
प्रसिद्ध संतूर वादक डॉ. ओमप्रकाश चौरसिया द्वारा लिखित पुस्तक "संगीत रस- परंपरा और विचार" के अनुसार आधुनिक काल में वादन शैली वैविध्य के आधार पर सितार के सात घराने हैं।
                                   
1) मैहर घराना
2) जयपुर बीनकर/सितार घराना
3) विष्णुपुर घराना
4) इंदौर घराना
5) सेनिया घराना
6) विलायतखानी घराना
7) लखनऊ घराना


बाबा अलाउद्दीन खाँ द्वारा दी गयी तन्त्रकारी शैली जिसे पण्डित रविशंकर, निखिल बैनर्जी ने अपनाया दरअसल सेनिया घराने की शैली का परिष्कार थी। अपने बाबा द्वारा स्थापित इमदादखानी शैली को मधुरता और कर्णप्रियता से पुष्ट किया उस्ताद विलायत खाँ ने। पूर्ण रूप से तन्त्री वाद्यों हेतु ही वादन शैली मिश्रबानी का निर्माण डॉ. लालमणि मिश्र ने किया तथा सैंकडों रागों में हजारों बन्दिशों का निर्माण किया। ऐसी 300 बन्दिशों का संग्रह वर्ष 2007 में प्रकाशित हुआ है।प्रसिद्ध सितार वादक, पं. रविशंकर, पं. निखिल बैनर्जी, उस्ताद विलायत खाँ, पं. बुद्धादित्य मुखर्जी, पं. देबु चौधरी, उ. शुजात ख़ाँ आदि।
                                                                 
                   
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